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महेश एलकुंचवार के सभी नाटक आज भी समकालीन और सांगत हैं, क्योंकि वह ज़िंदगी के मूलभूत सवालों से जूझते हैं, लगातार सवाल पूछते हैं, लगातार खोज करते हैं। वह अपने पात्रों को इतने प्रेम और सहजता से रचते हैं कि हम हर एक से जुड़ाव महसूस करने लगते हैं, उनमें अपनी छवि देखने लगते हैं। उनके लेखन में एक तरह की ईमानदारी नज़र आती है—कोई समझौता नहीं, कोई दावा नहीं, कोई दिखावा नहीं। यही बात शायद उनको एक बहुत महत्वपूर्ण नाटककार बनाती है। मंच की गतिविधियों के लिए महेश अपने पाठ, अपनी दृश्य-योजना में बहुत जगह देते हैं, बहुत कुछ अनकहा छोड़ देते हैं, जहाँ अभिनेता उसके उप-पाठ (सबटेक्स्ट) को खेल सकें, उस क्षण के विभिन्न भावों, प्रतिक्रियाओं और संभावनाओं को दर्शा सकें। ख़ास बात यह है कि वह अपने अभिनेता और उसकी कल्पनाशीलता पर विश्वास करते हैं। मंच पर उनके नाटकों की सफलता का यह एक बहुत बड़ा कारण है।

 

महेश एलकुंचवार के इस संग्रह के नाटकों का चयन उनके लेखन के विभिन्न चरणों से होने के कारण उनके सरोकारों की झलक देने के साथ-साथ, बतौर नाटककार उनकी लेखकीय यात्रा का अंदाज़ा भी बख़ूबी देता है। हिंदी क्षेत्र में शायद एलकुंचवार के नाटक सबसे ज़्यादा खेले गए हैं। पार्टी के अलावा, इन सभी नाटकों का अनुवाद श्री वसंत देव ने किया है। हम सभी भली-भाँति जानते हैं कि महत्वपूर्ण मराठी नाटकों को हिंदी में उपलब्ध कराने में अगर किसी एक व्यक्‍ति का हाथ है तो वह हैं श्री वसंत देव। मराठी के साथ-साथ हिंदी के मुहावरे पर उनकी पकड़ इतनी कमाल की है कि हर नाटक की भाषाई भिन्नता को पकड़कर उसे हिंदी के शहरी, आँचलिक, औपचारिक, अनौपचारिक, हर तरह के नाटक में सटीक तौर पर प्रस्तुत करते रहे हैं।

 

मुझे यक़ीन ही नहीं, पूरा विश्वास है कि हर तरह के पाठक, शोधकर्ता और रंगकर्मियों के लिए यह संग्रह बहुत ही मूल्यवान साबित होगा।
 

कीर्ति जैन

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महेश एलकुंचवार ने ऐसे नाटकों से शुरुआत की जो आत्मतुष्ट मध्यवर्गीय दर्शकों को झकझोरने के लिए लिखे गए थे। आगे चलकर वह यथार्थवाद के चुके हुए ज़खीरे को खंगालने लगे और तब एक उत्कृष्ट कृति, विरासत, के साथ सामने आए, जिसमें उन्होंने डगमगाते सामंती भारत की पृष्ठभूमि पर परिवार के विघटन की पड़ताल की। अपने बाद के नाटकों में यथार्थवाद को पीछे छोड़कर एलकुंचवार मौन की तलाश में जुट जाते हैं, आधे-अधूरे वाक्यांशों तथा रोज़मर्रा की घिसी-पिटी लोकोक्तियों को खोलते हैं और सावधानीपूर्वक या अनजाने में ऐसा विन्यास निर्मित करते हैं जो मानव मन के धुंधले और अंदरूनी हिस्सों को एक साथ छिपाता और उघाड़ता है। संवाद के लिए तरसते रहने के बावजूद, उनके पात्र एक-दूसरे से दूर हो जाते हैं। अपनी खोज में व्यग्र और अपनी ईमानदारी में अडिग एलकुंचवार अपनी भावनात्मक व्यापकता, बौद्धिक दृढ़ता और सूक्ष्मता के लिए आधुनिक भारतीय रंगमंच में अद्वितीय हैं।

गिरीश कर्नाड
पद्म भूषण एवं ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित

 

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महेश एलकुंचवार के लिए रंगमंच जीवन के साथ आबद्ध है, जिसके ज़रिए कभी वह बेचैनी से सवाल करता है और कभी कुतूहल जगाने वाले विषयों पर चिंतन करता है। सीमाओं को विस्तारित करने की अपनी खोज में महेश मूलतः एक पुनर्जागरण के मानस वाला नाटककार है। संस्तरित रिश्तों को संभालने और गढ़ने में आरक्त क्षण महेश के पहले सचेत प्रयासों में से एक है — एक ऐसा चरण जो उसके पहले के दौर से भिन्न है, जब वह विस्तारीकरण के साथ प्रयोग कर रहा था और थिएटर के लिए अपना ही मुहावरा रचने की खोज में था। कई मायनों में होली उसका सबसे अग्रणी प्रयोग बना, और आज तक बना हुआ है। महेश के नाटक आज भी प्रासंगिक और रोमांचक बने हुए हैं और नई पीढ़ी का ध्यान आकर्षित करने की मांग करते हैं।

विजया मेहता
रंगमंच निदेशक

Saat Naatak | सात नाटक

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